वास्तु पुरुष की उत्पति की कहानी, कैसे उन पर 45 देवताओं और राक्षसों ने अपना स्थान ग्रहण किया
(वास्तु पुरुष की उत्पति) लिंग पुराण और वामन पुराण के अनुसार एक बार की बात है, भगवान शिव और देवी पार्वती भ्रमण के लिए काशी जाते है। काशी में लीला करते हुए भगवान शिव अपना मुँह पूर्व दिशा की ओर करके बैठे जाते है, तभी अचानक पीछे से माँ पार्वती विनोद वश, अपने हाथों से, प्रभु के दोनों नेत्रों को बंद कर देती हैं। उनके ऐसा करने से समस्त जगत में अन्धकार छा जाता है। (वास्तु पुरुष की उत्पति की कहानी )
जगत को अन्धकार से बचाने के लिए भगवान शिव अपनी तीसरी आँख खोल देते हैं और उनकी तीसरी आँख खुलने पर जगत में फिर से रोशनी हो जाती है परन्तु भगवान शिव की तीसरी आंख जगत को तो अंधकार से तो बचा लेती है लेकिन उस तीसरी आँख के खुलने से उत्पन्न जो तेज है, उस रोशनी के ताप से माता की त्वचा काली हो जाती है और उनको पसीना आजाता है। उनके इसी पसीने से एक बालक का जन्म होता है जो दिखने में अंधकार के समान काला और बहुत ही भयानक होता है।
ऐसे में माता उस पुत्र की उत्पत्ति का कारण प्रभु से पूछती है तो प्रभु उसे नियति की योजना बताते है और उसे अंधक नाम से सम्बोधित करते है। जब कैलाश में ये घटना घट रही थी उसी समय भूलोक पर हिरण्याक्ष नाम का असुर पुत्र पाने के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या कर रहा था।
भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इस बालक हो उसे सौंप देते है, और असुर कुल में परवरिश के कारण अंधक, अंधकासुर बनता है। चूँकि अंधकासुर स्वयं शिव और पार्वती की संतान है, ऐसे में बाल्यकाल से ही बलवान है, पर फिर भी असुर गुणों के कारण व अधिक बलवान होने की इच्छा के कारण, वह ब्रह्मा जी की तपस्या करता है और उन्हें प्रसन्न कर लेता है। (वास्तु पुरुष की उत्पति)
जब ब्रह्मा जी वर मांगने के लिए कहते है तो अंधकासुर अपनी चतुराई का प्रयोग करते हुए ब्रह्म देव से कहता है कि मेरा रक्त जब भी भूमि पर गिरे तो उससे एक और अंधकासुर की उत्पति हो जाए साथ ही मेरी मृत्य तभी हो जब मैं अपनी माता को वासना दृष्टि से देखूँ। यहाँ अंधकासुर जानता है कि उसका लालन पालन राक्षस राज हिरण्याक्ष ने किया है तो उसकी कोई माता तो है ही नहीं ऐसे में वो कभी नहीं मर पायेगा।
ब्रह्मा जी वरदान देकर चले जाते जाते है और वरदान पाकर अंधकासुर तीनो लोकों पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है। स्वर्ग से अपना शासन हटते देवराज इन्द्र कामदेव की सहायता लेकर अंधकासुर के मन में काम का बीज बो देते है और फिर अंधकासुर के मन में विवाह करने की इच्छा होती है और वो अपने लिए सुन्दर स्त्री की तलाश करता है।
जब उसकी नजर माँ पार्वती पर पड़ती है तो वो उन्हें काम के वशीभूत देखता है और उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है। माता उसके प्रस्ताव अस्वीकार कर देती है, तब वो मुर्ख अपने बल का प्रयोग जब माता पर करता है, तब भी माता उसे सदमार्ग पर चलने का आग्रह करती है, और जब, वो नहीं मानता है, तब माता के आह्वान पर भगवान शिव और अंधकासुर का भयानक युद्ध होता है।
भगवान शिव जानते है कि अंधकासुर के रक्त के भूमि पर गिरते ही अनेकों अंधकासुर का जन्म हो जाता है ऐसे में भगवान शिव उसके साथ मल युद्ध आरम्भ करते है और युद्ध करते करते सहसा उनके शरीर से पसीना आता है और उन पसीनो की बूँद से एक ऐसे विकराल प्राणी का जन्म होता है जो देखते ही देखते समस्त चराचर को ग्रसने लग जाता है, और जो खून की बूंद जमीन पर गिरने लगे, उससे पहले ही वो प्राणी उसे पी लेता है
ऐसे में भगवान शिव अंधकासुर को मारने के लिए प्रहार पे प्रहार करते है और अंतिम प्रहार से पहले उसे ये बताते है कि वो कोई और नहीं बल्कि माँ पार्वती का पुत्र ही है, ऐसे में अंधकासुर को गलानि होती है कि उसने अनजाने में कितना बड़ा अपराध कर दिया और वो भगवान शिव के हाथो अपनी मृत्यु का वरण करता है।
अंधकासुर की मृत्यु के बाद देवता और असुर दोनों ये सोचते है कि अब इस विकराल प्राणी का क्या किया जाए तो ऐसे में वे सब मिलकर, उसे उठाकर ब्रह्म देव की, शरण में ले जाते है, और तब ब्रह्म देव बताते है कि इस प्राणी का जन्म भगवान् शिव के पसीने की बूंदो से हुआ है, ऐसे में इसका मरना तो असंभव है, पर इससे बचने के लिए सभी लोगो को मिलकर इसे भूलोक में औंधे मुँह जमीन पर लिटाना होगा और साथ ही ये दोबारा उठ खड़ा ना हो जाए इसके लिए अपना अपना एक अंश इसी के ऊपर रखना होगा।
ऐसे में ब्रह्म देव के प्रस्ताव से सब सहमत हो जाते है तब वह प्राणी विनीत भाव से ब्रह्मा जी से प्रार्थना करता है और कहता है कि हे जगतपिता इन सब के साथ आप भी मुझ पर वास करे। आप सब लोगो के वास करने से मुझे भी भूलोक में सम्मान मिलेगा और मेरी भी पूजा होगी, ऐसे में ब्रह्मा जी सहमत हो गए और उससे बोले कि आज से भूलोक पर जो खाद्य सामग्री है उसे तुम खा सकते हो पर उसमें भूलोक के समस्त जीव जन्तुओ का भी हक़ है ऐसे में तुम्हें सबका ध्यान रखकर भोजन करना है, (वास्तु पुरुष)
जीवजंतु तो मेरे आश्रित है, वो तो तुम्हें भोग अर्पित नहीं करेंगे, पर भूलोक की मेरी सबसे सुंदर रचना अर्थात मनुष्य है, जब भी कोई मनुष्य अपने भवन का निर्माण करेगा तो वो तुम्हें अवश्य भोग अर्पित करेगा तुम्हारी पूजा के बाद ही वो उस घर में फलीभूत होगा साथ ही और जो तुम्हे बिना ध्यान किये निर्माण करेगा उसके हर कार्य में बाधा आएगी,
उसे कभी सुख की प्राप्ति नहीं होगी। इसके बाद ब्रह्मा जी, देवताओं और राक्षसों ने मिलकर उसे भूमि में औंधे मुँह इस प्रकार लिटाया कि उसका मुख उत्तरपूर्व दिशा में रहे और उसके पैर दक्षिण पश्चिम दिशा में रहे, इस प्रकार वास्तु पुरुष का जन्म हुआ।
हिंदू धर्म पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा जी के आशीर्वाद के बाद से वास्तु पुरुष पृथ्वी पर सभी भूखंडों और संरचनाओं के देवता माने जाते हैं। भूखंड के आकार के हिसाब से वो अपना आकार बढ़ा और घटा लेते है। गृहारंभ से से गृह प्रवेश तक जिस किसी पूजन के दौरान उनके नाम की आहुति दी जाती है
उन्हें भोग अर्पित किया जाता है और निर्माण उनके मर्म स्थानो को बचाकर किया जाता है साथ ही उनके साथ उपस्थित सभी 45 देवताओं को ध्यान में रखकर निर्माण किया जाता है वास्तु के सिद्धांत का अनुसरण किया जाता है तो इसके बदले में वास्तु पुरुष, ब्रह्म देव और 45 देवता उस भूखंड पर रहने वाले लोगों को आयु, विद्या, यश, बल, सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य और आरोग्यता देते है। (वास्तु पुरुष की उत्पति)
ऐसे घरो में लक्ष्मी और नारायण का वास होता है यहाँ रहने वाले हर व्यक्ति के मनोरथ पूर्ण होते है। ईशानकोण में अर्थात North-east दिशा में वास्तुपुरुष का सिर है उनके सिर पर 'शिखी' देवता स्थित है। उनके बांये नेत्र पर दिति देवता और दांये नेत्र पर पर्जन्य देवता स्थित है।
उनके मुख पर आप देवता विराजमान है। उनके बांये कान पर अदिति देवता और दांये कान पर जयन्त देवता स्थित है। बांये कंधे पर भुजग देवता और दांये कंधे पर इंद्र देवता स्थित है। उनकी बांयी भुजा पर 'सोम', 'भल्लाट', 'मुख्य', 'नाग', और 'रोग' देवता स्थित है। उनकी दांयी भुजा पर 'सूर्य', 'सत्य', 'भृश', 'अन्तरिक्ष’ और 'अनिल' देवता स्थित है।
पेट पर मित्र और विवस्वान देवता स्थित है। बायीं बगल पर 'शोष' तथा 'असुर' स्थित है। दायीं बगल पर ‘वितथ' तथा 'बृहत्क्षत' स्थित है। बाँये ऊरु (घुटनेसे ऊपरका भाग) पर 'वरुण' देवता तथा दाँये ऊरु पर 'यम' देवता विराजमान है। बाँये घुटने पर 'पुष्पदन्त' देवता तथा दाँये घुटने पर 'गन्धर्व' देवता विराजमान है। बांयी पिंडली पर सुग्रीव और दांयी पिंडली पर भृंगराज स्थित है। गुप्तांग पर इंद्र और जय विराजमान है। बाँये नितम्ब पर 'दौवारिक' तथा दाँये नितंब पर 'मृग' विराजमान है, तथा पैरो में पितृगण है। (वास्तु पुरुष की उत्पति)
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